कविता, साझा दुःख, पत्र गिर जाते है

साझा दुःख 


पत्र गिर जाते है,

जैसे गिरते है बालक

ऊंचे शाख से,



मेरा हृदय भी वैसे ही

छिलता,

हल्की खरोंच पर रोने वाले,

उसकी पुकार कितनी दारुण होती,

अब जो चिमटी एक, 

तल्लीन है,



उस संग मानो,

उसका भी हृदय लगा हुआ है,

 भावनाएं संग ही आहत होंगी,

वह साथ ही कलपेगा,

जैसे वह स्वयं की रक्षा करता,

उसी प्रकार उसकी रक्षा करें,



मैं सोच ही आहलाद के ताल में हूं,

वाह! दूरदृष्टि वाह,

पत्र के पश्चात भी,

प्रेम सचित्र होगा,

जल उसके विरुद्ध है 

अग्नि शत्रु

 पर नेत्र उसके नष्ट होने पर भी 

केवल मित्र रहेंगी

 वह क्षमा दान करेंगी, 

वह अमिट प्रेम को ही सूचित करेगा,

अनल- अनिल अब युग्म भी बन जाएं,

तो भावनाएं

मग्न

अथवा

 धू-धू ना हो सकेंगी।



—©प्राची शर्मा 
Copyright—2023
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टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
Wah, behtareen
बेनामी ने कहा…
Wah behtareen